हिंदीग़ज़ल
फ़र्क़ पड़ता नहीं है पत्थर को
फ़र्क़ पड़ता नहीं है पत्थर को अक़्ल आती नहीं सुख़न-वर को देखता रह गया कलंदर को क़तरे में देखा जब समंदर को क़ाबिले-दीद क्या बचा है और बस तुझे देख लू घड़ी-भर को लूटता क्यूँ कमाई नदियों की क्या कमी है भला समंदर को पैर फैला दिये है ‘अंकुर’ ने और फिर ढूँढता है चादर को