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आख़िरी इच्छा।

Sushant Jain
An Indian old man sketch






अस्सी साल के हो चुके बाबूलाल बहुत ही शांत और सज्जन मिज़ाज के व्यक्ति है। तब तक जब तक पूरी दुनिया उनकी मर्ज़ी के मुताबिक़ चले। पृथ्वी सूर्य को छोड़ कर उनके चारों ओर घूमती रहे। उनका घर पूर्व दिशा में है। शायद तभी सूरज उधर से उगता है। मिनट से पहले सारे काम हो जाने चाहिए। घर का कोई फ़ैसला उनसे बिना पूछे ले लिया तो नाराज़ हो जाते थे। कभी खाना बंद कर देते तो कभी मौन व्रत ले लेते। ऐसे कई हथियार थे उनके पास। गांधीवादी जो ठहरे। घुटने जवाब दे चुके थे। कमर झुक गयी थी। पत्नी का देहांत हुए काफ़ी समय हो गया था। बेटा, बहु के साथ रहते है। राम जाने ये मौत का डर है या बचपना पर जैसे जैसे उम्र ढल रही थी बाबूलाल के मन में अजीबो-गरीब इच्छाओं का जन्म होता और हर इच्छा आख़िरी लगती थी। हर बार लगता कि बस ये इच्छा पूरी हो जाए फिर शांति से मर सकता हूँ। भगवान से प्रार्थना करते कि हे भगवान, मेरी इस इच्छा की पूर्ति होने दो फिर हंसते- हंसते तुम्हारे पास आऊँगा। तुमको कष्ट करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। मैं आगे से चलकर आऊँगा।

उनका बेटा, जीवन जो सरकारी महकमे में क्लर्क था स्वभाव से गम्भीर और अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सजग था। वो इस बात को समझता था कि माँ के कम उम्र में गुजर जाने के कारण पिताजी बिलकुल अकेले पड़ गए है। उसके मन में बाबूलाल के प्रति सेवाभाव था और उनके प्रति बिलकुल समर्पित था। पर हर चीज़ की एक हद होती है। रोज़ रोज़ बाबूलाल की फिर नई ज़िद और इच्छाएँ पूरी कर कर के वो पूरी तरह थक चुका है। कई बार तो ऐसी ख़तरनाक ज़िद पकड़ के बैठ जाते कि पूरा परिवार टेन्शन में आ जाता कि अब इनको समझाना कैसे रहा। सबसे ज़्यादा टेन्शन जीवन ही लेता। क्यूँकि समझाने की मुख्य ज़िम्मेदारी तो उसी की थी।

उनकी बहु, रंजना, जो कि हाउसवाइफ़ थी वैसे तो उनके नख़रों से तंग आ गयी थी पर आज भी अच्छी बहु होने का फ़र्ज़ निभा रही थी। मन लगा कर सेवा करती। कभी-कभी चिढ़ जाती। ज़्यादा परेशान होती तो अपने पति जीवन पर ग़ुस्सा निकालती। उससे ज़्यादा ग़ुस्सा होती तो अपने बच्चों पर निकालती। इसके अलावा कर भी क्या सकती थी। जीवन समझदारी से काम लेने की कोशिश करता। कभी रंजना को समझाता। कभी बाबूलाल को समझाता। कभी रंजना को डाँटता तो कभी बाबूलाल को डाँटता। बैलेन्स बना कर चलना या तो आप नट जाति के कलाकार से सीख सकते हो या जीवन से। अद्भुत है यह प्राणी।

बाबूलाल की एक बेटी, वसुधा और दामाद, महेश भी है। वैसे तो वे बाबूलाल की इच्छाओं के प्रकोप से दूर रहते थे परंतु कभी-कभार वे भी हत्थे चढ़ जाते। जब बाबूलाल जीवन की एक न सुनता तो वह वसुधा और महेश को इन्हें समझाने के लिए कहता। मगर बाबूलाल के पास हर तर्क का कुतर्क था। वो किसी से कहाँ मानने वाला था। ज़्यादा ही होता तो पूरे गाँव वालों को बोलना शुरू कर देता कि मेरा कोई ध्यान नहीं रखता, मेरी कोई सेवा नहीं करता। बच्चों को इतना पढ़ाया-लिखाया मगर कोई मतलब नहीं रहा। अंत में परिवार के ख़राब दिखने के डर से जीवन हो, रंजना हो, वसुधा हो या महेश उनकी बातों में आ ही जाते थे।

बाबूलाल का बड़ा पोता गौरव और छोटा पोता कौशिक है। गौरव सोफ्टवेयर इंजीनियर है, उसकी शादी हो गयी है, एक बच्ची है और वो बैंगलोर रहता है। कौशिक की शादी नहीं हुई। वो एल॰एल॰बी॰ की पढ़ाई कर रहा है और वो साथ में ही रहता है। बाबूलाल सबसे ज़्यादा कौशिक के क़रीब है। दोनों दादा-पोता कम, दोस्त ज़्यादा है। बाबूलाल को इस बात का इंतज़ार था कि कब कौशिक वकील बन जाए। बस उसके बाद वो ऐसी जगह उसका रिश्ता करेगा कि सब देखते रह जाए। उसने मन ही मन उसके लिए कई लड़कियाँ देख रखी है। सब एक से बढ़कर एक खूबसूरत है। बाबूलाल चाहता था कि वो उसकी शादी दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की से करवाए।




सुबह के कुछ ११ बज रहे होंगे। आज बाबूलाल ने अपनी बहु रंजना को सुबह ही बता दिया था कि उन्हें दाल बाटी खानी है। काफ़ी समय से उन्होंने दाल बाटी नहीं खाई थी क्यूँकि इस उम्र में खिचड़ी नहीं पचती, दाल बाटी कहाँ से पचेगी? परंतु आज ऐसा लगा कि ऐसी ज़िंदगी का क्या मतलब कि जिसमें दाल-बाटी भी न खा सके। मेरे राजस्थानी होने पर कलंक है। ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा? जो होगा देखा जाएगा। पता नहीं कितने दिन जीना है। खाँट पर पड़ा रहता हूँ। कहीं जा नहीं सकता। अब अपनी पसंद का खा भी नहीं सकूँ तो क्या मतलब? ऐसी नारकीय ज़िंदगी भगवान कभी किसी को न दे। आज तो दाल-बाटी ही खाई जाएगी।

रंजना सुबह-सुबह इस दाल-बाटी वाले हमले से परेशान हो गयी। अस्सी की उम्र हुई है। थोड़ा सा तो लिहाज़ करना चाहिए। बाटी चबाएँगे कैसे? एक भी दाँत तो बचा नहीं है। बीमार हो गए तो? सम्भालेगा कौन? ऊपर से गाँव के लोगों को बहाना चाहिए फोकट की चाय पीने का। ज़रा-सी बीमारी का पता चला नहीं और आ जाएँगे हाल-चाल पूछने। इनका क्या है ये तो बिस्तर पर पड़े रहेंगे। आवभगत तो मुझे ही करनी पड़ेगी। और ऊपर से ख़र्चा। कोई कृष्णयुग तो रहा नहीं कि दूध की नदियाँ बह रही हो। दिन का दस-दस लीटर दूध चला जाएगा चाय बनाने में। मैं नहीं बनाऊँगी दाल-बाटी। बहुत हो गयी मनमानी। मैं तो बिलकुल नहीं बनाऊँगी। आज तो इस घर में बनेगी पापड़ की सब्ज़ी। बहुत नख़रे हो गए। हाँ ये ठीक रहेगा। पापड़ की सब्ज़ी बनाऊँगी। पिछली बार बनाई थी पापड़ की सब्ज़ी तो कैसे ताना मारा था कि वाह क्या बढ़िया सब्ज़ी बनाई है। बढ़िया लगी तो आज फिर बनाऊँगी।

बाबूलाल को इस बात का अहसास हो जाता है कि दाल-बाटी नहीं बन रही है। वो रंजना को बुलाता है और पूछता है क्या बन रहा है तो रंजना जवाब देती है पापड़ की सब्ज़ी। बाबूलाल भड़क जाता है। दाल-बाटी क्यूँ नहीं बन रही? रंजना बहुत समझाने की कोशिश करती है कि बाटियाँ बहुत भारी होती है। तबियत ख़राब हो जाएगी। ज़िद न करे। पर बाबूलाल उसकी एक नहीं सुनता। और एक ही रट लगाता है कि बस ये मेरी अंतिम इच्छा है। इसके बाद कोई इच्छा नहीं बचेगी। अब कोई माँग नहीं, कोई ज़िद नहीं। केवल यह आख़िरी इच्छा पूरी कर दी जाए।

रंजना जीवन को फ़ोन लगाती है। जीवन के पास टाइम नहीं होता है वो कहता है बना दे दाल-बाटी। रंजना बाटी बनाकर पिस देती है मिक्सर में ताकि बाबूलाल खा सके आराम से। बाबूलाल बड़े चाव से खाता है। और अपनी बहू पर मन ही मन बहुत गर्व महसूस करता है। उसे इस बात का अहसास है कि आस-पड़ोस में बहुएँ कैसे रखती है अपने ससुर को। कितना घटिया खाना बनाती है। पूरा कामचलाऊ। आज आख़िर पत्नी के मरने के इतने समय तक वही तो सेवा कर रही है। पर जताता नहीं है। मन ही मन प्रशंसा करता है। उसे लगता है क्या पता माथे चढ़ जाए, सेवा करना छोड़ दे। उसके दोस्त विमल के साथ हुआ था ऐसा। उसकी बहू खूब सेवा करती थी। पर एक दिन उसने उसकी जी भर के तारीफ़ कर दी। एक वो दिन था और एक आज का दिन है। वैसी सेवा वापस ना मिली। बाबूलाल वो गलती दोहराना नहीं चाहता था।





कौशिक बाबूलाल के कमरे में उसके पास बैठा हुआ है। दोनों में घनिष्ठता देखते ही बनती थी। बाबूलाल अक्सर उसे अपने कठिनाइयों भरे जीवन के बारे में बताता रहता था। किस तरह उसने ज़िंदगी भर त्याग करके बच्चों को बड़ा किया। किस तरह अपने सपनों की क़ुर्बानी देकर बच्चों के सपने पूरे किए। किस तरह खुद सादा जीवन जिया परंतु बच्चों को कभी कोई कमी नहीं होने दी। कौशिक सारे क़िस्से अनगिनत बार सुन चुका है। उसे एक-एक शब्द याद हो चुका है। इसीलिए आज वो बात को पलटता है। और पूछता है कि दाजी यह तो मुझे समझ आ गया कि आपने बहुत त्याग किए है और इस बात पर मुझे बहुत गर्व भी है परंतु कभी तो ऐसा हुआ होगा कि अपने कोई ज़िद की हो। कभी तो आपकी भी कोई इच्छा रही होगी।

बाबूलाल मना कर देता है। उसने पूरी ज़िंदगी में कभी कोई ज़िद नहीं की। उसका जीवन तो त्याग का दूसरा नाम है।

मगर कौशिक बाबूलाल की बात नहीं मानता। और दोस्ती भरे लहजे में कहता है

“दाजी, सच-सच बताओ ना। पहली बार कब ज़िद की थी। प्लीज़ बताओ ना। प्लीज़, प्लीज़। वो पहली बार कब हुआ था जब आपने कोई ज़िद की थी। सब करते है। बचपन में तो करते ही है। आपने भी की होगी। पहली बार कब की थी?”

इतना सुन कर बाबूलाल दिमाग़ पर ज़ोर डालते-डालते कौशिक को यह कहानी सुनाता है।

यह उन दिनों की बात है जब मैं कुछ आठ से नौ बरस का रहा हूँगा। पड़ोस में कोठारी साहब रहते थे उनके घर में नया-नया रेडियो आया था। रेडियो में हॉकी की कॉमेंट्री आती थी। 1948 के ओलिंपिक्स चल रहे थे। क्या ख़ूब तो ध्यानचंद खेलता था। और उसके खेल को लाइव सुनने का रोमांच। मेरा तो सोच कर ही मन मचल जाता था। कोठारी साहब का लड़का मेरा दोस्त था। वो रोज़ आ-आकर बढ़ा-चढ़ाकर रेडियो के क़िस्से सुनाता था। मेरा भी बड़ा मन करता रेडियो की कॉमेंट्री सुनने का। मैंने जाकर पिताजी को बोला कि मुझे भी रेडियो चाहिए। बाल-मन को ज़्यादा अमीरी-ग़रीबी का पता नहीं चलता। उस समय रेडियो बहुत महँगा था। हमारी औक़ात से बहुत ज़्यादा बाहर। पिताजी ने मुझे मना कर दिया। मैंने ज़िद की। पिताजी ने एक कस कर चपेट दी। मैं चुप-चाप रोता-रोता मम्मी के पास चला गया।

कोठारी साहब का लड़का रोज़ आ-आकर मुझे रेडियो के बारे में नई-नई बातें बताता। मैं मन मारने के अलावा कुछ भी नहीं कर पाता था। इसी बीच ओलम्पिक का फ़ाइनल आता है। भारत फ़ाइनल में पहुँच गया था। मुझे कैसे भी कर के वो फ़ाइनल रेडियो पर सुनना था। पिताजी से थप्पड़ खाने के बाद रेडियो माँगने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। तो मैंने डरते-डरते कोठारी साहब के घर जा कर हॉकी फ़ाइनल सुनने की ज़िद की। पिताजी को शायद डर था कि इसको एक बार जाने दिया तो इसको रेडियो का चस्का लग जाएगा और ये रोज़ जाने की ज़िद करेगा और मुझे कैसे भी करके रेडियो लाना ही पड़ेगा। इसीलिए उन्होंने मुझे जाने देने के लिए बिलकुल मना कर दिया। पर मैंने भी हिम्मत कर के ज़िद पकड़ के रखी और कहा कि पिताजी कृपा करके मुझे जाने दे। मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि ये मेरी आख़िरी इच्छा है। आज मुझे जाने दे इसके बाद कभी कोई इच्छा नहीं जताऊँगा और कभी ज़िद नहीं करूँगा।”

“फिर?”

“फिर क्या?”

“परदादाजी ने आपको जाने दिया।”

“हाँ, बिलकुल। बहुत मज़ा आया मुझे। पहली बार मैंने रेडियो सुना था। फिर चौदह साल बाद मैंने खुद का रेडियो ख़रीदा। ये कितने भी बढ़िया टीवी आ जाए पर आज भी मुझे तो रेडियो ही पसंद है।” यह कहते हुए बाबूलाल बड़ी भावुकता के साथ अपना रेडियो सीने से लगा लेता है।




सुबह के १० बज रहे है। बाबूलाल रोज़ की तरह अपने दोस्तों के साथ बाज़ार में चाय पीते-पीते गप्पें लगा रहा है। टांग खिचने में उसका कोई जवाब नहीं है। उसके दोस्त रंगनाथ के पोते ने लव मेरिज की थी। वो उसकी रोज़ मज़ाक़ बनाता है कि उससे बिना पूछे उसके पोते की शादी करवा दी। उसकी कोई पूछ नहीं है उसके घर में। कोई औक़ात नहीं है। बाबूलाल को बड़ा गर्व है इस बात पर कि उसकी मर्ज़ी के बिना उसके घर में पत्ता तक नहीं हिलता। उसके रुतबे का कोई मुक़ाबला नहीं है। रंगनाथ को तो वो ‘बाइला’ कह कर चिढ़ाता था क्यूँकि उसकी औक़ात उसके घर में औरत जैसी है। उसे आदमी कहलवाने का कोई अधिकार ही नहीं है। एकदम बाइला है बाइला।

इतनी देर में रंगनाथ बात बदलने के लिए पूछता है कि सारी तैयारियाँ हो गई सूरत जाने की? बाबूलाल आश्चर्यचकित हो कर पूछता है कि कौन सूरत जा रहा है? रंगनाथ बताता है कि आप सब लोग जा रहे हो ना सूरत आपके पोते, कौशिक के रिश्ते के लिए लड़की देखने के लिए। क्यूँ आप को किसी ने बताया नहीं? लगता है आपकी कोई पूछ नहीं है घर में। खुद बाइले बनकर बैठे हो और खाँ-म-खाँ मुझे बाइला-बाइला कह कर चिढ़ाते हो।

बाबूलाल हक्का-बक्का रह जाता है। उसे कोई आइडिया नहीं होता कि सूरत जाने का कोई प्रोग्राम है। उसे तो यह भी आइडिया नहीं होता कि कौशिक के लिए कोई लड़की देखी है और उसके रिश्ते की कहीं बात चल रही है। मगर रंगनाथ के सामने बात सम्भालता है।

“अरे अरे। याद आया! हाय रे बुढ़ापा। कितनी चीजें भूल जाता हूँ। बिलकुल मुझे बताया है। सब-कुछ मुझसे पूछ कर ही हो रहा है। परसों जा रहे है हम सब सूरत। मैं भी जा रहा हूँ। तेरे जैसा बाइला नहीं हूँ। मुझसे बिना पूछे कोई काम नहीं होता घर में।”

रंगनाथ कुछ जवाब देता इससे पहले ही बाबूलाल ने सड़क पर किसी अज्ञात व्यक्ति की स्कूटी रुकवा दी और उसे घर का पता बताते हुए बोला कि मुझे छोड़ दे और वो व्यक्ति बाबूलाल को स्कूटी पर बैठा देता है और घर की तरफ़ निकल पड़ता है।

रास्ते में हज़ार प्रकार के सवाल उसके मन को झकझोर रहे है। मुझको किसी ने बताया कैसे नहीं? और किस-किस को इस बात का पता है? कहीं इन लोगों ने वसुधा और महेश को भी बताया या नहीं? सूरत कौन- कौन जा रहा है? क्या रंजना सिर्फ़ अपने मायके वालों को लेकर जाना चाहती है? रंजना तो पराई है पर जीवन? जीवन तो मेरा खून है। कितनी मुश्किलों से उसे पाल-पोस के बड़ा किया। कहीं वो बिलकुल बीवी के चंगुल में तो नहीं फँस चुका? जैसे रंजना नचाएगी क्या वो नाचता रहेगा? कहीं यह उसे छोड़ के सूरत जाने की साज़िश तो नहीं है? किसने की होगी ये साज़िश? जीवन तो ऐसा नहीं है। ज़रूर रंजना ने ही भड़काया होगा उसे। रंजना तो मेरे पीछे ही पड़ गयी है। वो घर में मुझे मेरी जगह दिखाना चाहती है। ये तो सीधा-सीधा मेरे आत्म-सम्मान पर हमला है। क्या कौशिक को तो पता है यह बात? उसे पता होती तो वो मुझे ज़रूर बताता। वो तो मुझे धोखा बिलकुल नहीं दे सकता। कहीं ये उसे बिना-बताए शादी तो नहीं करवाना चाहते? लड़की की जाति क्या है? कहीं नीची जाति में तो नहीं शादी करवा रहे है? शायद तभी मुझे बताया ही नहीं।

या कहीं ऐसा तो नहीं है कि सालों बाद रंगनाथ में हिम्मत आ गयी हो और वो उसके साथ मज़ाक़ कर रहा हो? अगर ऐसा है तो मैंने गड़बड़ कर दी। आख़िर उतावला हो कर यह कहने की क्या ज़रूरत थी कि मुझे पता है सब। मैं भी जा रहा हूँ। बात पलट भी तो सकता था। फिर एक बार तसल्ली से पता कर के उसे जवाब दे देता। पर रंगनाथ में मुझसे, बाबूलाल हरदोई द ग्रेट से मज़ाक़ करने की हिम्मत आ कहाँ से गयी? नहीं, ये हो नहीं सकता। उस बाइले में इतनी हिम्मत आ ही नहीं सकती कि वो मुझसे इस तरीक़े का मज़ाक़ करे। छोटा-मोटा तो ठीक है पर इस तरह का वो मज़ाक़ कर ही नहीं सकता। ज़रूर कोई ना कोई बात है।

पर यह बात जो मुझे भी नहीं पता रंगनाथ को कैसे पता चली? कौन है वो जो घर की बातें लीक कर रहा है। ज़रूर यह काम रंजना के मायके वालों ने किया होगा। वे ही कर सकते है ऐसे काम। उनके पेट में कोई बात नहीं रहती।

यही सब सोचते-सोचते घर आ जाता है। बाबूलाल बड़ी सावधानी से स्कूटी से उतरता है और घर में प्रवेश करता है। घर में केवल रंजना है। जीवन नौकरी पर और कौशिक कॉलेज गया है। कई सारे सवालों के कारण उसका मन उचट रहा है। वो सावधानी से रंजना के सामने बात रखता है।

“बहू, परसों का क्या प्लान है?”

रंजना को समझ नहीं आता कि क्या जवाब दे इसीलिए वह प्रश्न को अनसुना कर के रसोई में चली जाती है। और चुपके से जीवन को फ़ोन कर बताती है कि वे पूछ रहे थे कि परसों का क्या प्लान है? कहीं उन्हें पता तो नहीं चल गया? मैं क्या जवाब दूँ?

जीवन परिस्थिति की गंभीरता तुरंत भाँप लेता है और रंजना को रसोई में ही रहने की हिदायत देकर तुरंत घर के लिए निकल जाता है।

दरअसल, कौशिक के लिए एक महीने पहले रिश्ता आया था। लड़की का नाम रेखा है। वो भी एलएलबी कर रही है। उन्ही की जाति की है। इज़्ज़तदार परिवार है। जीवन ने बात आगे बढ़ाने के लिए सूरत जाने का निर्णय लिया। जीवन खुद, रंजना, कौशिक, वसुधा और महेश जा रहे थे। सूरत जाने का दस घंटे का रास्ता है। दस घंटे आना और दस घंटे जाना। जीवन ने एक गाड़ी किराए पर ले ली है। बाबूलाल इस उम्र में इतनी लम्बी यात्रा नहीं कर सकते। डॉक्टर ने भी मना बोला है। परंतु अगर बाबूलाल को इस बात की भनक लग जाती तो वे सूरत आने की ज़िद करते। उनको समझाना बहुत कठिन हो जाता। इसीलिए जीवन, रंजना, वसुधा और महेश ने मिलकर ये निर्णय लिया था कि बाबूलाल को यह बात नहीं बतानी है। मगर अब ऐसा लग रहा था कि बाबूलाल को कहीं और से यह बात पता चल गयी है। ये बिलकुल भी उचित नहीं था। बाबूलाल के ग़ुस्से से जीवन अच्छी तरीक़े से वाक़िफ़ था। इसीलिए बहुत चिंतित होकर घर की तरफ़ दौड़ा था।

जीवन घर पहुँचता है। और बाबूलाल के कमरे में जाकर बैठ जाता है। बाबूलाल उससे पूछता है। परसों का क्या प्लान है? जीवन उन्हें पूरी बात बताता है।

बाबूलाल उसे कहता है कि मैं भी जाऊँगा सूरत। तुमको तो पता ही है कि सारे बच्चों में कौशिक से मुझे ख़ास लगाव है। उसका रिश्ता करवाने के लिए मैं जाने कब से इंतज़ार कर रहा हूँ। एक ही तो तमन्ना है मेरी कि दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की से मेरे कौशिक का रिश्ता करूँ। मेरी बस यही आख़िरी इच्छा है। तुम लोगों को दुनियादारी की कुछ समझ नहीं है। तुम अभी छोटे हो। मैंने दुनिया देखी है। घाट-घाट का पानी पिया है। मैं तो उन लोगों से ख़ाली दस मिनट बात करके ही समझ जाऊँगा कि यह परिवार कितने पानी में है।

“पिताजी आप बात को समझा करो।”

“अरे तू समझा कर बात को। आजकल ज़माना बहुत ख़राब हो गया है। कल ही अख़बार में आया था कि कैसे एक लड़की शादी के दो महीने बाद सास-ससुर की हत्या करके घर का पूरा पैसा लेकर रफूचक्कर हो गयी। और एक महीने की कड़ी मेहनत के बाद आख़िरकार वो मिली तो कहती है चुपचाप यहाँ से निकल जाओ वरना दहेज का केस ठोक दूँगी। हो जाओगे पाँच साल के लिए अंदर। तुम लोगों के बस की बात नहीं है। मेरा तुम्हारे साथ होना बहुत ज़रूरी है। ये बाल ऐसे ही सफ़ेद नहीं हुए है।

“पिताजी पर बाल तो मेरे भी सफ़ेद हो गए है”

“बहुत ज़बान लड़ाने लग गया है। ऐसे संस्कार तो नहीं दिए मैंने। कौन भड़का रहा है तुझे? पत्नी के पल्लू से बाहर निकले तो कुछ बात समझ में आए”

“पिताजी आप ग़लत समझ रहे है। अच्छा, चलो बाद में बात करते है।” इतना कहकर जीवन वहाँ से निकल जाता है और वसुधा को फ़ोन मिलाकर सारी दशा बताता है। वसुधा कहती है कि महेश के साथ शाम को आती हूँ।



शाम का वक्त। वसुधा, महेश, जीवन और कौशिक बाबूलाल के कमरे में बैठे है। रंजना रसोई में चाय बना रही है।

“पिताजी, डॉक्टर ने आपको गाड़ी में यात्रा करने के लिए बिलकुल मना बोला है। और जीवन अकेला थोड़ी जा रहा है। हम सब जा रहे है साथ में। आप बिलकुल चिंता न करे।” वसुधा बात शुरू करती है।

“अरे वसुधा! कैसी बात करती है। मेरे कौशिक के रिश्ते के लिए जा रहे हो। मुझे नहीं ले जा रहे हो। और तुम कहती हो चिंता न करे? कैसे चिंता न करे। चिंता की ही तो बात है। कितने सालो से मेरी बस एक ही तमन्ना है उस पर भी तुम पानी फेर दे रहे हो। उसके बाद भी कह रहे हो चिंता न करे।” बाबूलाल बड़े ग़ुस्से में कहता है।

“एक-दो घंटे नहीं। पूरे 20 घंटे का सफ़र है। आना और जाना। पिछली बार पता है कैसे घुटने सूज गए थे। और उसके बाद डॉक्टरसाहब ने सख़्ती से आपको यात्रा करने के लिए मना किया था। आपके लिए ही तो हम कह रहे है।” महेश भी समझाने की कोशिश करता है।

“मैं दिन-भर खाँट में पड़ा रहता हूँ। ये चार-दीवारी ही मेरी दुनिया हो गयी है। शरीर हिल गया है। घंटो घड़ी की सुइयों को घूमते हुए देखता रहता हूँ और जब उनको देखते-देखते पूरी तरह बोर हो जाता हूँ, पता है तब क्या करता हूँ?”

“क्या करते है।”

“घड़ी की सुइयों को देखता रहता हूँ। फिर से। रोज़। बार-बार। बाक़ी कोई विकल्प नहीं है। यही मेरी ज़िंदगी है। इंसान का शरीर बूढ़ा हो जाता है पर मन नहीं। हर क्षण मन कुछ न कुछ नया करने के लिए प्रेरित होता है और हर क्षण मैं अपने मन को मार कर अपना ध्यान फिर से घड़ी की सुई की तरफ़ ले आता हूँ। मुझे नहीं पता और कितने दिन जीना है। अब तो जीने की इच्छा भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। बस एक ही इच्छा बची है। एक आख़िरी इच्छा। मुझे कौशिक का रिश्ता करवाने सूरत जाना है। अब इसके बाद कभी भी और कोई इच्छा नहीं होगी।” इतना कह कर बाबूलाल फुट-फुट कर रोने लगता है। मानो कोई बच्चा हो। आजतक कभी-भी किसी ने बाबूलाल को रोते हुए नहीं देखा था। ज़िंदगी में कई विषम से विषम परिस्थितियाँ आई पर बाबूलाल ने सबका डटकर सामना किया। यह पहली बार था कि वो रो रहा था और रो ही नहीं रहा था बहुत ज़ोर से रो रहा था। ऐसा लगता था मानो ज़िंदगी भर का रोना आज एकसाथ रो रहा हो। मानो सोच रखा हो कि कभी फ़ुरसत में जी-भर कर रोऊँगा और आख़िरकार वो फ़ुरसत आज आई हो। ऐसा लगता था जैसे बाबूलाल के आँखों से मूसलाधार बारिश हो रही हो।

सभी ने बाबूलाल को ढाँढस बँधाया और उस समय इस मुद्दे पर कोई और बात नहीं की। रात की नौ बजे वसुधा और महेश अपने घर जीवन को यह कह कर चले गए कि जैसा आपको उचित लगता है, करे।

जीवन परेशान था। पिताजी को इस कदर रोते हुए देखकर उसका जी-भर आया था। परंतु उसे यह भी पता था कि पिताजी अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है। उसने इस बार पूरा मन बना लिया था कि पिताजी की ज़िद के आगे कुछ भी हो जाए, इस बार हथियार नहीं डालूँगा। हर चीज़ की एक सीमा होती है। आख़िर कब तक सहन करूँगा मैं। मैं कोई बच्चा तो रहा नहीं हूँ। साठ का होने आया हूँ। कब तक इनकी मनमानिया चलेगी। पिछली बार भी मनमानी कर के गए थे और पाँव सूजाकर आए थे। और फिर दिन भर इनके पीछे लगना पड़ा था। मैं इन्हें सम्भालू, ऑफ़िस सम्भालू, रंजना को सम्भालू, कौशिक की शादी की तैयारियाँ करूँ। क्या-क्या करूँ।

आख़िरकार सभी लोग बाबूलाल को लिए बग़ैर सूरत के लिए रवाना हो जाते है। बाबूलाल अंत तक मुँह पर एक ही रट लगाए रखता है। यह मेरी आख़िरी इच्छा है, यह मेरी आख़िरी इच्छा है। प्लीज़, मुझे ले जाओ। यह मेरी आख़िरी इच्छा है। यह मेरी आख़िरी इच्छा है।




दिन के बारह बज रहे है। बाबूलाल भोजन करने के लिए रसोई की तरफ़ जाता है। जीवन, रंजना, वसुधा, महेश और कौशिक सूरत के लिए सुबह चार बजे रवाना हुए थे। रंजना ने दो बजे उठकर बाबूलाल के लिए दोनों वक्त का खाना बनाया था। बाबूलाल खाने बैठता है। उसकी मन-पसंद सब्ज़ी और बढ़िया घी से भरे हुए पराठे बने हुए है। बाबूलाल जैसे ही खाता है तो उसकी स्वादेंद्रियों को परम सुख की प्राप्ति होती है। खाना बहुत स्वादिष्ट बना है। खाना खाते-खाते उन्हें सहसा रंजना और जीवन की महानता का आभास होता है। सुबह चार बजे निकल गए थे। इसके बावजूद मेरे लिया इतना स्वादिष्ट भोजन बना कर रख कर गए। हज़ार जन्मों तक पुण्य अर्जित करे तब जाकर मिलते है ऐसे बेटा बहू। इस बार जैसे ही आएँगे तो मैं उनकी जी-भर के तारीफ़ करूँगा। मैं उन्हें बताऊँगा कि मैं कितना क़िस्मत वाला हूँ जो मुझे इतनी सेवा करने वाले बेटा-बहू मिले। थोड़ा सा डाटूँगा भी कि मुझे सूरत ले कर क्यूँ नहीं गए। प्यार से डाटूँगा। बहुत प्यार से। मेरी आख़िरी इच्छा थी। बिलकुल आख़िरी। आख़िरी वाली आख़िरी। एकदम-से आख़िरी। मेरी आख़िरी इच्छा थी।

इतनी देर में मोबाइल की घंटी बजती है। बाबूलाल धीरे-धीरे रसोई से अपने कमरे की तरफ़ जाता है और फ़ोन उठाता है। जीवन का फ़ोन है पर किसी अंजान व्यक्ति की आवाज़ आती है। वो कह रहा है कि हाई-वे पर एक गाड़ी का बुरी तरह से ऐक्सिडेंट हो गया है। सभी लोगों की ऑन-द-स्पॉट डेथ हो गयी है। उनके मोबाइल पर आपका नम्बर लास्ट डायल था। इसीलिए आपको फ़ोन करके सूचना दे रहा हूँ।